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आइए जानते हैं कि 2022 में कजरी तीज कब है व कजरी तीज 2022 की तारीख व मुहूर्त । कजरी तीज, जिसे कजली तीज भी कहा जाता है, भादो मास में कृष्ण पक्ष की तृतीया को मनाई जाती है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार यह तिथि जुलाई अगस्त के महीने में आती है। कजरी तीज मुख्यत: महिलाओं का पर्व है। यह त्यौहार उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और बिहार समेत हिंदी भाषी क्षेत्रों में प्रमुखता से मनाया जाता है। इनमें से कई इलाकों में कजरी तीज को बूढ़ी तीज व सातूड़ी तीज के नाम से भी जाना जाता है। हरियाली तीज, हरतालिका तीज की तरह कजरी तीज भी सुहागन महिलाओं के लिए अहम पर्व है। वैवाहिक जीवन की सुख और समृद्धि के लिए यह व्रत किया जाता है। कजरी तीज पर होने वाली परंपरा 1. इस दिन सुहागन महिलाएं पति की लंबी आयु के लिए कजली तीज का व्रत रखती हैं जबकि कुंवारी कन्याएं अच्छा वर पाने के लिए यह व्रत करती हैं। 2. कजरी तीज पर जौ, गेहूं, चने और चावल के सत्तू में घी और मेवा मिलाकर तरह-तरह के पकवान बनाये जाते हैं। चंद्रोदय के बाद भोजन करके व्रत तोड़ते हैं। 3. इस दिन गायों की विशेष रूप से पूजा की जाती है। आटे की सात लोइयां बनाकर उन पर घी, गुड़ रखकर गाय को खिलाने के बाद भोजन किया जाता है। 4. कजली तीज पर घर में झूले डाले जाते हैं और महिलाएं एकविन टोकी हैं। 5. इस दिन कजरी गीत गाने की विशेष परंपरा है। यूपी और बिहार में लोग ढोलक की थाप पर कजरी गीत गाते हैं। कजरी तीज पूजा विधि एस्ट्रोलॉजर चिराग अदा गुरुजी कजरी तीज के अवसर पर नीमड़ी माता की पूजा करने का विधान है। पूजन से पहले मिट्टी व गोबर से दीवार के सहारे एक तालाब जैसी आकृति बनाई जाती है (घी और गुड़ से पाल बांधकर) और उसके पास नीम की टहनी को रोप देते हैं। तालाब में कच्चा दूध और जल डालते हैं और किनारे पर एक दीया जलाकर रखते हैं। थाली में नींबू, ककड़ी, केला, सेब, सत्तू, रोली, मौली, अक्षत आदि रखे जाते हैं। इसके अलावा लोटे में कच्चा दूध लें और फिर शाम के समय शृंगार करने के बाद नीमड़ी माता की पूजा इस प्रकार करें.. 1. सर्वप्रथम नीमड़ी माता को जल व रोली के छींटे दें और चावल चढ़ाएं। 2. नीमड़ी माता के पीछे दीवार पर मेहंदी, रोली और काजल की 13-13 बिंदिया अंगुली से लगाएं। मेंहदी, रोली की बिंदी अनामिका अंगुली से लगाएं और काजल की बिंदी तर्जनी अंगुली से लगानी चाहिए। 3. नीमड़ी माता को मोली चढ़ाने के बाद मेहंदी, काजल और वस्त्र चढ़ाएं। दीवार पर लगी बिंदियों के सहारे लच्छा लगा दें। 4. नीमड़ी माता को कोई फल और दक्षिणा चढ़ाएं और पूजा के कलश पर रोली से टीका लगाकर लच्छा बांधें। 5. पूजा स्थल पर बने तालाब के किनारे पर रखे दीपक के उजाले में नींबू, ककड़ी, नीम की डाली, नाक की नथ, साड़ी का पल्ला आदि देखें। इसके बाद चंद्रमा को अर्घ्य दें। चंद्रमा को अर्घ्य देने की विधि कजरी तीज पर संध्या के समय नीमड़ी माता की पूजा के बाद चांद को अर्घ्य देने की परंपरा है। 1. चंद्रमा को जल के छींटे देकर रोली, मोली, अक्षत चढ़ायें और फिर भोग अर्पित करें। 2. चांदी की अंगूठी और आखे (गेहूं के दाने) हाथ में लेकर जल से अर्घ्य दें और एक ही जगह खड़े होकर चार बार घुमें । कजरी तीज व्रत के नियम 1. यह व्रत सामान्यत: निर्जला रहकर किया जाता है। हालांकि गर्भवती स्त्री फलाहार कर सकती हैं। 2. यदि चांद उदय होते नहीं दिख पाये तो रात्रि में लगभग 11:30 बजे आसमान की ओर अर्घ्य देकर व्रत खोला जा सकता है। 3. उद्यापन के बाद संपूर्ण उपवास संभव नहीं हो तो फलाहार किया जा सकता है। उपरोक्त विधि-विधान के अनुसार कजरी तीज का व्रत रखने से सौभाग्यवती स्त्री के परिवार में सुख-समृद्धि और खुशहाली आती । वहीं कुंवारी कन्याओं को अच्छे वर की प्राप्ति होती है। आप सभी को एस्ट्रोलॉजर चिराग अदा गुरुजी की ओर से कजरी तीज की शुभकामनाएं
जन्माष्टमी 2022 की तारीख व मुहूर्त आइए जानते हैं कि 2022 में जन्माष्टमी कब है व जन्माष्टमी 2022 की तारीख व मुहूर्त । जन्माष्टमी का त्यौहार श्री कृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। मथुरा नगरी में असुरराज कंस के कारागृह में देवकी की आठवीं संतान के रूप में भगवान श्रीकृष्ण भाद्रपद कृष्णपक्ष की अष्टमी को पैदा हुए। उनके जन्म के समय अर्धरात्रि ( आधी रात थी, चन्द्रमा उदय हो रहा था और उस समय रोहिणी नक्षत्र भी था। इसलिए इस दिन को प्रतिवर्ष कृष्ण जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। कृष्ण जन्माष्टमी का मुहूर्त 1. अष्टमी पहले ही दिन आधी रात को विद्यमान हो तो जन्माष्टमी व्रत पहले दिन किया जाता है। 2. अष्टमी केवल दूसरे ही दिन आधी रात को व्याप्त हो तो जन्माष्टमी व्रत दूसरे दिन किया जाता है। 3. अष्टमी दोनों दिन आधी रात को व्याप्त हो और अर्धरात्रि (आधी रात में रोहिणी नक्षत्र का योग एक ही दिन हो तो जन्माष्टमी व्रत रोहिणी नक्षत्र से युक्त दिन में किया जाता है। 4. अष्टमी दोनों दिन आधी रात को विद्यमान हो और दोनों ही दिन अर्धरात्रि (आधी रात ) में रोहिणी नक्षत्र व्याप्त रहे तो जन्माष्टमी व्रत दूसरे दिन किया जाता है। 5. अष्टमी दोनों दिन आधी रात को व्याप्त हो और अर्धरात्रि (आधी रात) में दोनों दिन रोहिणी नक्षत्र का योग न हो तो जन्माष्टमी व्रत दूसरे दिन किया जाता है। 6. अगर दोनों दिन अष्टमी आधी रात को व्याप्त न करे तो प्रत्येक स्थिति में जन्माष्टमी व्रत दूसरे ही दिन होगा। विशेषः उपरोक्त मुहूर्त स्मार्त मत के अनुसार दिए गए हैं। वैष्णवों के मतानुसार श्रीकृष्ण जन्माष्टमी अगले दिन मनाई जाएगी। ध्यान रहे कि वैष्णव और स्मार्त सम्प्रदाय मत को मानने वाले लोग इस त्यौहार को अलग-अलग नियमों से मनाते हैं। हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार वैष्णव वे लोग हैं, जिन्होंने वैष्णव संप्रदाय में बतलाए गए नियमों के अनुसार विधिवत दीक्षा ली है। ये लोग अधिकतर अपने गले में कण्ठी माला पहनते हैं। और मस्तक पर विष्णुचरण का चिन्ह (टीका) लगाते हैं। इन वैष्णव लोगों के अलावा सभी लोगों को धर्मशास्त्र में स्मार्त कहा गया है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि वे सभी - लोग, जिन्होंने विधिपूर्वक वैष्णव संप्रदाय से दीक्षा नहीं ली है, स्मार्त कहलाते हैं। जन्माष्टमी व्रत व पूजन विधि 1. इस व्रत में अष्टमी के उपवास से पूजन और नवमी के पण से व्रत की पूर्ति होती है। 2. इस व्रत को करने वाले को चाहिए कि व्रत से एक दिन पूर्व (सप्तमी को हल्का तथा सात्विक भोजन करें। रात्रि को स्त्री संग से वंचित रहें और सभी ओर से मन और इंद्रियों को काबू में रखें। 3. उपवास वाले दिन प्रातः स्नानादि से निवृत होकर सभी देवताओं को नमस्कार करके पूर्व या उत्तर को मुख करके बैठें। 4. 4. हाथ में जल, फल और पुष्प लेकर संकल्प करके मध्यान्ह के समय काले तिलों के जल से स्नान (छिड़ककर ) कर देवकी जी के लिए प्रसूति गृह बनाएँ । अब इस सूतिका गृह में सुन्दर बिछौना बिछाकर उस पर शुभ कलश स्थापित करें। 5. साथ ही भगवान श्रीकृष्ण जी को स्तनपान कराती माता देवकी जी की मूर्ति या सुन्दर चित्र की स्थापना करें। पूजन में देवकी, वासुदेव, बलदेव, नन्द, यशोदा और लक्ष्मी जी न सबका नाम क्रमशः लेते हुए विधिवत पूजन करें। 6. यह व्रत रात्रि बारह बजे के बाद ही खोला जाता है। इस व्रत में अनाज का उपयोग नहीं किया जाता। फलहार के रूप में कुट्टू के आटे की पकौड़ी, मावे की बर्फ़ी और सिंघाड़े के आटे का हलवा बनाया जाता है। जन्माष्टमी कथा एस्ट्रोलॉजर चिराग अदा गुरुजी की ओर से शुभ विचार कथा रस द्वापर युग के अंत में मथुरा में उग्रसेन राजा राज्य करते थे। उग्रसेन के पुत्र का नाम कंस था। कंस ने उग्रसेन को बलपूर्वक सिंहासन से उतारकर जेल में डाल दिया और स्वयं राजा बन गया। कंस की बहन देवकी का विवाह यादव कुल में वासुदेव के साथ निश्चित हो गया। जब कंस देवकी को विदा करने के लिए रथ के साथ जा रहा था तो आकाशवाणी हुई, हे कंस! जिस देवकी को तू बड़े प्रेम से विदा कर रहा है उसका आठवाँ पुत्र तेरा संहार करेगा। आकाशवाणी की बात सुनकर कंस क्रोध से भरकर देवकी को मारने के लिए तैयार हो गया। उसने सोचा- न देवकी होगी न उसका कोई पुत्र होगा । वासुदेव जी ने कंस को समझाया कि तुम्हें देवकी से तो कोई भय नहीं है। देवकी की आठवीं संतान से भय है। इसलिए मैं इसकी आठवीं संतान को तुम्हे सौंप दूँगा। कंस ने वासुदेव जी की बात स्वीकार कर ली और वासुदेव-देवकी को कारागार में बंद कर दिया। तत्काल नारद जी वहाँ आ पहुँचे और कंस से बोले कि यह कैसे पता चलेगा कि आठवाँ गर्भ कौन-सा होगा। गिनती प्रथम से शुरू होगी या अंतिम गर्भ से । कंस ने नारद जी के परामर्श पर देवकी के गर्भ से उत्पन्न होने वाले समस्त बालकों को एक-एक करके निर्दयतापूर्वक मार डाला। भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में श्रीकृष्ण जी का जन्म हुआ। उनके जन्म लेते ही जेल की कोठरी में प्रकाश फैल गया। वासुदेव-देवकी के सामने शंख, चक्र, गदा एवं पदमधारी चतुर्भुज भगवान ने अपना रूप प्रकट कर कहा, अब में बालक का रूप धारण करता हूँ। तुम मुझे तत्काल गोकुल में नन्द के यहाँ पहुँचा दो और उनकी अभी-अभी जन्मी कन्या को लेकर कंस को सौंप दो। वासुदेव जी ने वैसा ही किया और उस कन्या को लेकर कंस को सौंप दिया। कंस ने जब उस कन्या को मारना चाहा तो वह कंस के हाथ से छूटकर आकाश में उड़ गई और देवी का रूप धारण कर बोली कि मुझे मारने से क्या लाभ है? तेरा शत्रु तो गोकुल पहुँच चुका है। यह दृश्य देखकर कंस हतप्रभ और व्याकुल हो गया । कंस ने श्रीकृष्ण को मारने के लिए अनेक दैत्य भेजे। श्रीकृष्ण जी ने अपनी आलौकिक माया से सारे दैत्यों को मार डाला। बड़े होने पर कंस को मारकर उग्रसेन को राजगद्दी पर बैठाया। जन्माष्टमी का महत्व 1. इस दिन देश के समस्त मंदिरों का श्रृंगार किया जाता है। 2. श्री कृष्णावतार के उपलक्ष्य में झाकियाँ सजाई जाती हैं। 3. भगवान श्रीकृष्ण का श्रृंगार करके झूला सजा के उन्हें झूला झुलाया जाता है। स्त्री-पुरुष रात के बारह बजे तक व्रत रखते हैं। रात को बारह बजे शंख तथा घंटों की आवाज से श्रीकृष्ण के जन्म की खबर चारों दिशाओं में गूँज उठती है। भगवान कृष्ण जी की आरती उतारी जाती है और प्रसाद वितरण किया जाता है। इस लेख के साथ हम आशा करते हैं कि जन्माष्टमी के पावन पर्व पर आपको भगवन कृष्ण की असीम कृपा प्रदान हो । आप सभी को एस्ट्रोलॉजर चिराग अदा गुरुजी की ओर से कृष्णा जन्माष्टमी की शुभकामनाएं
आइए जानते हैं कि 2022 में रक्षाबंधन कब है व रक्षाबंधन 2022 की तारीख व मुहूर्त । रक्षाबंधन का त्यौहार प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाते हैं; इसलिए इसे राखी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व भाई-बहन के प्रेम का उत्सव है। इस दिन बहनें भाइयों की समृद्धि के लिए उनकी कलाई पर रंग-बिरंगी राखियाँ बांधती हैं, वहीं भाई बहनों को उनकी रक्षा का वचन देते हैं। कुछ क्षेत्रों में इस पर्व को राखरी भी कहते हैं। यह सबसे बड़े हिन्दू त्योहारों में से एक है। रक्षाबंधन मुहूर्त रक्षा बंधन का पर्व श्रावण मास में उस दिन मनाया जाता है जिस दिन पूर्णिमा अपराह्न काल में पड़ रही हो। हालाँकि आगे दिए इन नियमों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है 1. यदि पूर्णिमा के दौरान अपराह्न काल में भद्रा हो तो रक्षाबन्धन नहीं मनाना चाहिए। ऐसे में यदि पूर्णिमा अगले दिन के शुरुआती तीन मुहूर्तों में हो, तो पर्व के सारे विधि-विधान अगले दिन के अपराह्न काल में करने चाहिए। 2. लेकिन यदि पूर्णिमा अगले दिन के शुरुआती 3 मुहूर्तों न हो तो रक्षा बंधन को पहले ही दिन भद्रा के बाद प्रदोष काल के उत्तरार्ध में मना सकते हैं। यद्यपि पंजाब आदि कुछ क्षेत्रों में अपराह्न काल को अधिक महत्वपूर्ण नहीं माना जाता है, इसलिए वहाँ आम तौर पर मध्याह्न काल से पहले राखी का त्यौहार मनाने का चलन है।लेकिन शास्त्रों के अनुसार भद्रा होने पर रक्षाबंधन मनाने का पूरी तरह निषेध है, चाहे कोई भी स्थिति क्यों न हो । ग्रहण सूतक या संक्रान्ति होने पर यह पर्व बिना किसी निषेध के मनाया जाता है। राखी पूर्णिमा की पूजा-विधि रक्षा बंधन के दिन बहने भाईयों की कलाई पर रक्षा सूत्र या राखी बांधती हैं। साथ ही वे भाईयों की दीर्घायु, समृद्धि व ख़ुशी आदि की कामना करती हैं। रक्षा सूत्र या राखी बांधते हुए निम्न मंत्र पढ़ा जाता है, जिसे पढ़कर पुरोहित भी यजमानों को रक्षा सूत्र बांध सकते हैं जिसके द्वारा दैत्यों के स्वामी शक्तिशाली राजा को बांधा गया था। उसी से भी बाँध लूँगा, तेरी रक्षा करूँगा, हिलना नहीं, हिलना-डुलना नहीं। इस मंत्र के पीछे भी एक महत्वपूर्ण कथा है, जिसे प्रायः रक्षाबंधन की पूजा के समय पढ़ा जाता है। एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से ऐसी कथा को सुनने की इच्छा प्रकट की, जिससे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाती हो। इसके उत्तर में श्री कृष्ण ने उन्हें यह कथा सुनायी प्राचीन काल में देवों और असुरों के बीच लगातार 12 वर्षों तक संग्राम हुआ। ऐसा मालूम हो रहा था कि युद्ध में असुरों की विजय होने को है। दानवों के राजा ने तीनों लोकों पर कब्ज़ा कर स्वयं को त्रिलोक का स्वामी घोषित कर लिया था। दैत्यों के सताए देवराज इन्द्र गुरु बृहस्पति की शरण में पहुँचे और रक्षा के लिए प्रार्थना की। श्रावण पूर्णिमा को प्रातःकाल रक्षा-विधान पूर्ण किया गया। इस विधान में गुरु बृहस्पति ने ऊपर उल्लिखित मंत्र का पाठ किया; साथ ही इन्द्र और उनकी पत्नी ने भी पीछे-पीछे इस मंत्र को दोहराया। इंद्र की पत्नी इंद्राणी ने सभी ब्राह्मणों से रक्षा सूत्र में शक्ति का संचार कराया और इन्द्र के दाहिने हाथ की कलाई पर उसे बांध दिया। इस सूत्र से प्राप्त बल के माध्यम से इन्द्र ने असुरों को हरा दिया और खोया हुआ शासन पुनः प्राप्त किया। रक्षा बंधन को मनाने की एक अन्य विधि भी प्रचलित है। महिलाएँ सुबह पूजा के लिए तैयार होकर घर की दीवारों पर स्वर्ण टांग देती हैं। उसके बाद वे उसकी पूजा सेवईं, खीर और मिठाईयों से करती हैं। फिर वे सोने पर राखी का धागा बांधती हैं। जो महिलाएँ नाग पंचमी पर गेंहूँ की बालियाँ लगाती हैं, वे पूजा के लिए उस पौधे को रखती हैं। अपने भाईयों की कलाई पर राखी बांधने के बाद वे इन बालियों को भाईयों के कानों पर रखती हैं। कुछ लोग इस पर्व से एक दिन पहले उपवास करते हैं। फिर रक्षाबंधन वाले दिन, वे शास्त्रीय विधि-विधान से राखी बांधते हैं। साथ ही वे पितृ-तर्पण और ऋषि-पूजन या ऋषि तर्पण भी करते हैं। कुछ क्षेत्रों में लोग इस दिन श्रवण पूजन भी करते हैं। वहाँ यह त्यौहार मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार की याद में मनाया जाता है, जो भूल से राजा दशरथ के हाथों मारे गए थे। इस दिन भाई अपनी बहनों तरह-तरह के उपहार भी देते हैं। यदि सगी बहन न हो, तो चचेरी - ममेरी बहन या जिसे भी आप बहन की तरह मानते हैं, उसके साथ यह पर्व मनाया जा सकता है।रक्षाबंधन से जुड़ी कथाएँ राखी के पर्व से जुड़ी कुछ कथाएँ हम ऊपर बता चुके हैं। अब हम आपको कुछ अन्य ऐसी पौराणिक घटनाएँ बताते हैं, जो इस त्यौहार के साथ जुड़ी हुई हैं मान्यताओं के अनुसार इस दिन द्रौपदी ने भगवान कृष्ण के हाथ पर चोट लगने के बाद अपनी साड़ी से कुछ कपड़ा फाड़कर बांधा था। द्रौपदी की इस उदारता के लिए श्री कृष्ण ने उन्हें वचन दिया था कि वे द्रौपदी की हमेशा रक्षा करेंगे। इसीलिए दुःशासन द्वारा चीरहरण की कोशिश के समय भगवान कृष्ण ने आकर द्रौपदी की रक्षा की थी । • एक अन्य ऐतिहासिक जनश्रुति के अनुसार मदद हासिल करने के लिए चित्तौड़ की रानी कर्णावती ने मुग़ल सम्राट राखी भेजी थी । हुमाँयू ने राखी का सम्मान किया और अपनी बहन की रक्षा गुजरात के सम्राट से की थी। ऐसा भी कहा जाता है कि इस दिन देवी लक्ष्मी ने सम्राट बाली की कलाई पर राखी बांधी थी। आप सभी को एस्ट्रोलॉजर चिराग अदा गुरुजी की ओर से रक्षाबंधन की शुभकामनाएं